Tuesday, October 6, 2009

दुनिया से वफ़ा करके सिला ढूँढ रहे हैं
हम लोग भी नदाँ हैं ये क्या ढूँढ रहे हैं
कुछ देर ठहर जाईये बंदा-ए-इन्साफ़
हम अपने गुनाहों में ख़ता ढूँढ रहे हैं
ये भी तो सज़ा है कि गिरफ़्तार-ए-वफ़ा हूँ
क्यूँ लोग मोहब्बत की सज़ा ढूँढ रहे हैं
दुनिया की तमन्ना थी कभी हम को भी 'फ़ाकिर'
अब ज़ख़्म-ए-तमन्ना की दवा ढूँढ रहे हैं
Posted by ANAND BAIRAGI at 2:32 AM 0 comments

वक़्त
बदलते वक़्त का इक सिलसिला सा लगता है
के जब भी देखो उसे दूसरा-सा लगता है
तुम्हारा हुस्न किसी आदमी का हुस्न नही किसी
बुजुर्ग की सच्ची दुआ सा लगता है
तेरी निगाह को तमीज़ रंग-ओ-नूर कहाँ
मुझे तो खून भी रंग-ऐ-हिना सा लगता है
दमाग-ओ-दिल हूँ अगर मुतमईन तो छाओं है धूप
थपेडा लू का भी ठंडी हवा सा लगता है
वो छत पे आ गया बेताब हो के आखिर
खुदा भी आज शरीक-ऐ-दुआ सा लगता है
तुम्हारा हाथ जो आया है हाथ में मेरे
अब ऐतबार का मौसम हरा-सा लगता है
निकल के देखो कभी नफरतों के पिंजरे से
तमाम शहर का "मंज़र" खुला सा लगता है

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