अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,
पलक संपुटों में मदिरा भर,
तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था?
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
‘यह अधिकार कहाँ से लाया!’
और न कुछ मैं कहने पाया -
मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
वह क्षण अमर हुआ जीवन में,
आज राग जो उठता मन में -
यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
Thursday, December 3, 2009
Tuesday, October 20, 2009
TU
तू मेरी जिन्दगी के आइने पर एक लकीर के समान है जो कही गहरी और कही पतली है जब इन लकीरों की गहराई में में खो जाता हु तब में तुझे ठुन्द्ता हु बता तू कहा है में जानता हु तू यहाँ नहीं है मगर ये दिल है की कह रहा है तू यही है यही कही है
Tuesday, October 6, 2009
दुनिया से वफ़ा करके सिला ढूँढ रहे हैं
हम लोग भी नदाँ हैं ये क्या ढूँढ रहे हैं
कुछ देर ठहर जाईये बंदा-ए-इन्साफ़
हम अपने गुनाहों में ख़ता ढूँढ रहे हैं
ये भी तो सज़ा है कि गिरफ़्तार-ए-वफ़ा हूँ
क्यूँ लोग मोहब्बत की सज़ा ढूँढ रहे हैं
दुनिया की तमन्ना थी कभी हम को भी 'फ़ाकिर'
अब ज़ख़्म-ए-तमन्ना की दवा ढूँढ रहे हैं
Posted by ANAND BAIRAGI at 2:32 AM 0 comments
वक़्त
बदलते वक़्त का इक सिलसिला सा लगता है
के जब भी देखो उसे दूसरा-सा लगता है
तुम्हारा हुस्न किसी आदमी का हुस्न नही किसी
बुजुर्ग की सच्ची दुआ सा लगता है
तेरी निगाह को तमीज़ रंग-ओ-नूर कहाँ
मुझे तो खून भी रंग-ऐ-हिना सा लगता है
दमाग-ओ-दिल हूँ अगर मुतमईन तो छाओं है धूप
थपेडा लू का भी ठंडी हवा सा लगता है
वो छत पे आ गया बेताब हो के आखिर
खुदा भी आज शरीक-ऐ-दुआ सा लगता है
तुम्हारा हाथ जो आया है हाथ में मेरे
अब ऐतबार का मौसम हरा-सा लगता है
निकल के देखो कभी नफरतों के पिंजरे से
तमाम शहर का "मंज़र" खुला सा लगता है
हम लोग भी नदाँ हैं ये क्या ढूँढ रहे हैं
कुछ देर ठहर जाईये बंदा-ए-इन्साफ़
हम अपने गुनाहों में ख़ता ढूँढ रहे हैं
ये भी तो सज़ा है कि गिरफ़्तार-ए-वफ़ा हूँ
क्यूँ लोग मोहब्बत की सज़ा ढूँढ रहे हैं
दुनिया की तमन्ना थी कभी हम को भी 'फ़ाकिर'
अब ज़ख़्म-ए-तमन्ना की दवा ढूँढ रहे हैं
Posted by ANAND BAIRAGI at 2:32 AM 0 comments
वक़्त
बदलते वक़्त का इक सिलसिला सा लगता है
के जब भी देखो उसे दूसरा-सा लगता है
तुम्हारा हुस्न किसी आदमी का हुस्न नही किसी
बुजुर्ग की सच्ची दुआ सा लगता है
तेरी निगाह को तमीज़ रंग-ओ-नूर कहाँ
मुझे तो खून भी रंग-ऐ-हिना सा लगता है
दमाग-ओ-दिल हूँ अगर मुतमईन तो छाओं है धूप
थपेडा लू का भी ठंडी हवा सा लगता है
वो छत पे आ गया बेताब हो के आखिर
खुदा भी आज शरीक-ऐ-दुआ सा लगता है
तुम्हारा हाथ जो आया है हाथ में मेरे
अब ऐतबार का मौसम हरा-सा लगता है
निकल के देखो कभी नफरतों के पिंजरे से
तमाम शहर का "मंज़र" खुला सा लगता है
Subscribe to:
Posts (Atom)